बहुजन स्वराज पंचायत
सत्रों का शब्दांकन [Hindi Transcripts of Sessions]
पहला दिन: सत्र 0, 1 [Day 1: Sessions 0, 1]
शब्दांकन [TRANSCRIPT]
विडियो लिंक:https://www.youtu.be/cNhoyu0PcCw]
7 अक्टूबर 2025: पहला दिन, सत्र 0 (सु. 10.00 से सु. 11.00): स्वागत और विषय प्रवेश
लक्ष्मण प्रसाद:
स्वराज पंचायत में आए हुए समस्त लोगों का इस सारनाथ की धरती बुद्ध की स्थली पर आप सभी लोगों का हार्दिक हार्दिक स्वागत अभिनंदन है. बहुजन स्वराज पंचायत कार्यक्रम की अब शुरुआत होने जा रही है. इस कार्यक्रम में स्वागत के लिए मैं चित्रा सहस्रबुद्धे जी को आमंत्रित करता हूं कि आप आए और शुरू में इस बहुजन स्वराज पंचायत की शुरुआत में स्वागत करें.
चित्रा सहस्रबुद्धे:
बहुजन स्वराज पंचायत की शुरुआत होने जा रही है. विद्या आश्रम पर हो रही इस बहुजन स्वराज पंचायत में आप सभी का स्वागत है. इस पंचायत में जगह-जगह से लोग आए हैं. कुछ आने वाले हैं. कुछ रास्ते में है. अ उसके पहले अ मैं चाहूंगी कि मंच पर नागपुर से आए श्री गिरीश सहस्त्रबुद्धे लोकविद्या जन आंदोलन और विद्या आश्रम के शुरुआती दौर से चले आ रहे साथी मंच पर आए और बैठे आप बैठे मैं सामू भगत जी को आमंत्रित करती हूं हूं कि वह मंच पर आए और अगले सत्र में जो भी कार्यवाही होगी यह अध्यक्ष मंडल है इस अगले सत्र का बहुजन समाज के नाम पर जो सत्र चलेगा साथ ही इस सत्र के का संचालन करने वाले फजलुर रहमान अंसारी जी को मैं आमंत्रित करती हूं कि वे भी मंच पर आ जाए. लोरीकायन के और जनेनी के आजमगढ़ से आए श्री केदारनाथ यादव जी भी आए मंच पर आसीन हो. वर्धा से किसान आंदोलन के नेता श्री विजय जावंधिया जी आए हैं. उन्हें भी इस सत्र की अध्यक्षता करनी थी. लेकिन वो देर से आए हैं. थोड़े थके हुए हैं. थोड़ा आराम कर रहे हैं. तो हम लोग सत्र शुरू करेंगे. बहुजन समाज स्वराज पंचायत की इस तैयारी में की थोड़ी सी जानकारी मैं यहां रखना चाहूंगी. आप सबका स्वागत है. हमारे विद्या आश्रम के साथी इंदौर से संजीव आए हैं. अपने साथ मालवा और निमाड़ के एक बहुत बड़े समुदाय को साथ लाए हैं. जो अभी स्टेशन पर है उनको लेने गए हुए हैं. वह भी आ जाएंगे. यह ज्यादातर उस स्थान के उस क्षेत्र के आदिवासी और बंजारे समुदाय हैं जिन जो लोकविद्या जन आंदोलन के विविध कार्यक्रमों में शामिल रहे हैं तो वह भी कुछ देर में आ जाएंगे यहां शामिल होंगे. साथ ही बनारस के आसपास जो संघर्ष चल रहे हैं विस्थापन विरोध के डोमरी खासतौर से डोमरी का गांव जो है पिछले दिनों कई दिनों से वो धरने पर बैठे थे और भारतीय किसान यूनियन के हमारे साथी लक्ष्मण और कमलेश जी जाते रहे हैं उसमें वो लोग भी आ रहे हैं तो जगह जगह से के कार्यकर्ता आएंगे इस तरह के जैसेजैसे आएंगे हम लोग उनका स्वागत इसमें करेंगे. फिलहाल विद्या आश्रम के जो साथी आए हैं बेंगलुरु से कृष्णन जी आए हैं. उनकी पत्नी राजकुमारी जी आई हैं. बहुत दिनों बाद यहां मुलाकात हो रही है परिसर पर. साथ ही सुरेश जी बेंगलुरु से आए हैं. यह सब विद्या आश्रम के साथी हैं. सिंगौली से अवधेश जी और उनके साथी आए हैं. लक्ष्मीच दुबे जी आए हैं. एक दो लोग और आए हैं. इस बहुजन स्वराज पंचायत में कुछ युवा लोग आए हैं. पगडंडी समूह नाम से एक समूह है. पिछले एक डेढ़ साल से दो साल से हमारा उनसे लगातार संवाद चल रहा है. वे साथी भी आए हैं. यह सब सब साथी युवा हैं और खोज में हैं कि आज की स्थिति में कैसे कोई नया विचार समाज के परिवर्तन के लिए कहां से मिलेगा. कुछ सूत्र ढूंढ रहे हैं और उनकी इस बहुजन स्वराज पंचायत में हम उनका स्वागत करते हैं और एक बहुमूल्य योगदान देने की अपील भी करते हैं अपने विचारों और अनुभवों के आधार पर. तो आप सभी का स्वागत है. बनारस से विविध क्षेत्रों से सामाजिक कार्यकर्ता आए हैं. झांसी से अभी कृष्ण गांधी आए हैं. चंडीगढ़ से नवदीप शोध कार्य छात्र हैं. वे भी आए हैं. धीरे-धीरे जैसेजैसे लोग आते जाएंगे यहां से जानकारी मिलती जाएगी. मैं थोड़ी सी बात इस मुद्दे पर करना चाहती हूं कि यह तीन दिन की जो पंचायत होने जा रही है इसमें हम लोग बहुत विस्तार के साथ पूरा दिन दे रहे हैं. एक दिन बहुजन समाज के ऊपर विमर्श और व्याख्या के लिए और दूसरा दिन स्वराज पर. यह बहुजन, स्वराज और लोकविद्या यह आपस में कैसे जुड़े हैं और यह जुड़ना हमें किस दिशा की ओर ले जा रहा है इस बात पर इन तीन दिवस में विस्तार से चर्चा होगी. इस अवसर पर एक पुस्तिका भी छपी है बहुजन स्वराज पंचायत की किताब के नाम से जो उपलब्ध है रजिस्ट्रेशन पर और आप लेते जाए एक प्रति जिसमें आप में से कई लोगों ने लेख लिखे हैं कि यह बहस को हम इस बहुजन स्वराज पंचायत को बनाने में किस दिशा से चले किन मुद्दों को ले कहां ध्यान रखना है किन शक्तियों के प्रति सचेत रहना है वगैरह वगैरह बहुजन दो ही बात मैं कहना चाहती हूं. एक तो यह कि बहुजन मतलब सामान्य जन ले रहे हैं हम. सामान्य लोग जिसमें बहुसंख्या में लोकविद्याधर समाज है. बहुजन समाज के ज्यादातर लोग अपना जीवन यापन लोकविद्या के बल पर करते हैं. हम इनको लोकविद्याधर समाज भी कह सकते हैं. और दूसरा स्वराज. स्वराज कोई हम ग्राम स्वराज की बात नहीं कर रहे हैं. हम बहुजन समाज के पहल पर स्वराज के निर्माण की बात कर रहे हैं. और बहुजन समाज यानी लोकविद्याधर समाज जिसका ज्ञानगत आधार लोकविद्या में है जो आज भी अपने और लोकविद्या के बारे में भी यह साफ हो कि लोकविद्या कोई परंपरागत विद्या नहीं है. मोटरसाइकिल बनाने वाला, कंप्यूटर बनाने वाला, बिजली के सामान बनाने वाला सारे कारीगर इसमें शामिल है जिन्होंने अपने सहयोगियों के साथ रहकर इस विद्या को सीखा है. तो लोकविद्या, बहुजन और समाज और स्वराज हमें लगता है इन तीनों पर अगर विस्तार से इस पंचायत में बातचीत होगी तो हमें जरूर एक ऐसी राज्यसत्ता की कल्पना का आधार मिलेगा जिसमें प्रजा और राजा के बीच में कम से कम अंतर होगा. वो इसका मतलब यह है समाज में गैर बराबरी दूर होगी. चाहे वह आर्थिक हो, सामाजिक हो, राजनीतिक. यह तीन बातें हम लोग इस पंचायत में चर्चा में रखेंगे. एक बात ये कि हम यहां तक पहुंचे कैसे? मैं इसको थोड़ा सा रखना चाह रही हूं. लोकविद्या जन आंदोलन तो पिछले 10 के बाद से लगातार यहां कई गतिविधियां लेता रहा और कई तरह के समाजों के बीच कार्य हुए. ज्ञान पंचायतते हुई, सम्मेलन हुए, महापंचायतें हुई, किसान और कारीगरों के आंदोलन में शरीक हुए. इन सारे अनुभवों को इकट्ठा करने के बाद कुछ सोचा गया कि किस तरह से कार्य किया जाए इसको. 2016 में यहां के सलारपुर गांव में एक वाराणसी ज्ञान पंचायत का गठन हुआ. वाराणसी ज्ञान पंचायत वाराणसी के ज्ञानियों की पंचायत है. इसको घोषित करते हुए यहां के बनारस के समाज कार्य सामाजिक कार्यकर्ता लोकविद्या जन आंदोलन और तमाम बहुत सारे संगठन जैसे बुनकर शाहजहां और मल्लाहा समाज के कुछ संगठन भारतीय किसान यूनियन स्वराज अभियान के लोग मिलके इस वाराणसी ज्ञान पंचायत को बनाया जिसमें शोषित समाज दल ने अपनी भागीदारी सुनिश्चित की कि हम इस ज्ञान आंदोलन के साथ हैं. तो 2016 के बाद वाराणसी ज्ञान पंचायत में जितने लोग थे उनकी मुख्य रूप से तीन गतिविधियां रही. जगह-जगह ज्ञान पंचायतते आयोजित करना और लोकविद्याधर धरों के लिए सरकारी कर्मचारी के बराबर आय होने वाले मुद्दे पर विस्तार से उसको तर्क संगत उसकी व्याख्या करना और उसका दावा ठोकना. दूसरा था सुर साधना पत्रिका यहां से वाराणसी ज्ञान पंचायत की ओर से निकलना शुरू हुआ जिसमें पूरी तरह से स्थापित राजनैतिक विचारधाराओं के बाहर बहुजन समाज की जो स्थिति है, जो परंपराएं हैं, जो शक्तियां है, जो जीवन शैली है, जो कार्य हैं, उनके आधार पर मुक्ति के विचार को बनाने की कोशिश हुई और उसी से संबंधित लेख उसमें छापे गए. तीसरा तीसरा कार्यक्रम यह हुआ कि जगह-जगह ज्ञान पंचायतते आयोजित हुई. घाटों पर लोक नीति संवाद आयोजित हुए. तो यह गतिविधि वाराणसी ज्ञान पंचायत की ओर से चलती रही और हम बहुजन स्वराज पंचायत तक पहुंचे हैं. उन्हीं लोगों की बदौलत जिन लोगों ने उपरोक्त क्रियाओं को चलाने में सक्रिय भूमिका अदा की है. उसमें फ़ज़लुर्रहमान जी हैं. हरिश्चंद्र हैं, लक्ष्मण जी हैं. और भी कई लोग हैं. कमलेश हैं. रामजनम जी हैं. पारमिता रही हैं. तो इस तरह से आज हम यहां तक पहुंचे हैं. इन्हीं की बदौलत हम केवल यह कहना चाहते हैं कि यह सभी लोग लोकविद्या, स्वराज और बहुजन पर पिछले दो साल से तीन साल से सतत विचार कर रहे हैं और इनके पास बहुत कुछ कहने के लिए है. आज हम लोग सुनेंगे उनके मारफत. की इस पूरी पंचायत उन्होंने संगठित की है और आज हम ध्यान से सुनेंगे उनके साथियों को और अपने इसमें विचारों में उनको लेंगे और आगे मनन करेंगे. तो मैं इतना ही कहूंगी और फ़ज़लुर्रहमान जी को आमंत्रित करूंगी कि वे सत्र की शुरुआत का संचालन करें. … अच्छा ठीक है … नहीं, नहीं मैं भूल गई … देखिए इस उम्र में यह हो रहा है इसलिए अब ये आखरी ही प्रयास है ये सत्र शुरू करने के पहले इस पूरी बहुजन स्वराज पंचायत की एक और महत्वपूर्ण क्रिया चलती रही वो है ऑनलाइन चर्चा लोकविद्या समूह के जितने लोग हैं अलग-अलग शहरों में वे कोविड के दौरान से लगभग प्रति बुधवार को प्रति सप्ताह एक बार ऑनलाइन एक-डेढ़ घंटे, दो घंटे इनके अनेक विषयों पर चर्चा करते रहे हैं और वो और ये स्थानीय स्तर पर जो कार्य चल रहे हैं इंदौर में वाराणसी में और कुछ जगह ये सब मिलकर हम लोग यहां पहुंचे हैं. तो मैं गिरीश जी को आमंत्रित करती हूं कि इस बहुजन स्वराज पंचायत का व्यापक विचार और विषय यहां रखें.
गिरीश सहस्रबुद्धे:
सबको नमस्कार! मैं गिरीश सहस्रबुद्धे. मैं नागपुर में रहता हूं और विद्या आश्रम से शुरू से जुड़ा हुआ हूं. मेरा काम थोड़ा सा है आज के अभी के सत्र में. कई चीजें … चित्रा जी बात कर चुकी हैं. मैं उसी पर कुछ और बातें करना चाहूंगा. वह यह है कि बहुजन समाज की ओर जब हम देखते हैं तो जो चीज सीधे सामने आती है वह है – आज बहुजन समाज के बारे में क्या समझ है यह सबसे पहले दिखाई देती है. ये बहुजन स्वराज पंचायत की जो पहल है … वो इसको कुछ दूसरा सकारात्मक मोड़ देने के लिए सबसे पहले तो यह पहल है. बहुजन स्वराज की पहल की शुरुआत के तौर पर हम इसकी तरफ देख सकते हैं. बहुजन समाज एक विशाल समाज है जो सामान्य जीवन का वाहक है. वो एक ज्ञानी समाज है. हम जिसको लोकविद्या समाज कहते आए हैं आज तक वही समाज है. लेकिन बहुजन यह शब्द उसकी इस लोकविद्या समाज की एक दूसरी बात को पकड़ने वाला शब्द है जो यह कहता है कि यह सामान्य जीवन जीने वाला समाज है. यह सामान्य जन का समाज है. यह अभिजनों से अलग समाज है. उस उन लोगों से अलग लोगों का समाज है जो किसी न किसी तरह से बाकी लोगों पर राज करने की व्यवस्थाओं से संबंधित रहे हैं. यह अन्य लोगों का समाज है. जो इस व्यवस्थाओं के बाहर रहे हैं. बहुजन समाजों का ज्ञान वह ज्ञान है जो मनुष्य की सर्जन शक्ति से पैदा होता है. सृजन से पैदा होता है. वास्तविक क्रियाओं में पैदा होता है. और वहीं बसा रहता है. वह बाहर निकलकर … जैसे पूंजीवादी समाज के अन्य चीजों के बारे में हुआ कि वे बाहर जाकर उसी समाज के विरोध में खड़ी हो गईं. यह बहुजन समाज के ज्ञान के साथ कभी हुआ नहीं. इसमें संतुलन है. इसमें बिखराव नहीं है. सामान्य जीवन का वाहक होने का मतलब है कि इसमें किसी भी तरह का बिखराव नहीं आया. बिखराव का मतलब यह है कि इस ज्ञान के किसी एक हिस्से को पकड़ के उसको बहुत बड़ा कभी होने नहीं दिया गया. सामान्य जीवन की यह शर्त रही कि यह बहुत बड़ा नहीं हो. इसके उलट … पिछले 200-400 वर्षों में जो पश्चिम में हुआ है वह इसके उलट हुआ है. वहां भौतिक जो आयाम है ज्ञान का उसको पकड़ कर के और उसको इतना बढ़ाया गया उसको इतना बढ़ावा मिला कि वह बहुजन समाज के ज्ञान से अलग हो गया है. उसकी विधा अलग है. हालांकि बहुजन समाज की क्रियाओं में ही उसका भी उगम है. क्योंकि सारे ज्ञान का उगम जो है वो वास्तविक सर्जन की क्रियाओं में ही है. बहुजन समाज के ज्ञान से हटकर जो ज्ञान खड़ा हुआ उसने राजनीति को भी जन्म दिया. उसने समाज का विभाजन शासक और शासित वर्गों में किया. ऐसे समूहों में जो शासन करते हैं और ऐसे बहुजन समाज जिन पर शासन हुआ … किया गया … और जिनके बल पर संपत्ति इकट्ठा की गई. इस काम में भौतिक ज्ञान को जिन्होंने बहुत बड़ा किया उन्होंने यह काम भी किया और इसका परिणाम अलग-अलग किस्म की राज्य व्यवस्थाओं में हुआ. जबकि बहुजन समाज इन व्यवस्थाओं के बाहर बना रहा. आज हम जो बात बढ़ाना चाहते हैं इस पंचायत के माध्यम से वह यह है कि इन राज्य व्यवस्थाओं के बाहर भी समाज संचालन की ताकतवर प्रणालियां हैं. ताकतवर विचार हैं. ताकतवर दर्शन है जो बहुजन समाज के पास है. आज इसका मौका है एक तरह से. मौका इस तरह से है कि जो भौतिक ज्ञान के बल पर राज्य व्यवस्थाएं बनी और जिन्होंने शोषण की तमाम व्यवस्थाओं को जन्म दिया और मजबूत किया वे सारी व्यवस्थाएं … समाज को इन्होंने भयानक संकटों में धकेल दिया है और वो संकट इस तरह के हैं कि जिनका जवाब इनके पास नहीं है और जो बहुजन समाज के आंदोलनों में प्रकट होते हैं. ज्ञान को समाज से हटाकर उसी समाज के विरोध में खड़ा करने का सबसे बड़ा जो परिणाम हुआ है वह पूरी प्रकृति पर हुआ है और जो पर्यावरण संकट के रूप में सबके सामने है जिसका कोई जवाब नहीं है. जिसका जवाब इतना ही है कि आज के जो जीवन प्रणालियां इन व्यवस्थाओं ने खड़ी की हैं वह जब तक चलती हैं तब तक यह संकट बना रहेगा. इन जीवन प्रणालियों को बदलने का कोई जरिया इनके पास नहीं है. जबकि बहुजन समाज के पास वो हमेशा से है. हमेशा से रहा है. ऐसी अवस्था में बहुजन समाज के आंदोलन इस बात को इस दृष्टि से देखें जो कि ज्ञान दृष्टि है. ज्ञान दृष्टि से इसको पहचाने. अगर यह पहचान नहीं बना पाते हैं तो बहुजन समाज के आंदोलन भी आज की व्यवस्थाओं को मजबूत करने के आंदोलन बनकर रह जाते हैं. यह तथ्य भी सामने है. परिवर्तन की विचारधाराओं से जो आंदोलन खड़े हुए वह सारे बहुजन समाज के आंदोलन ही थे. लेकिन वो आज की ज्ञान विधाओं पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगा पाए और ये उनकी सबसे प्रमुख कमजोरी मानी जानी चाहिए. मैं आपको एक उदाहरण देता हूं छोटा सा बात को साफ करने के लिए. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में वांग होमिंग नाम के एक विचारक हैं जो कम्युनिस्ट पार्टी में महत्वपूर्ण स्थान पर हैं. वो पानी है ये वांग होमिंग 1990 के लगभग अमेरिका गए और अमेरिका के समाज की का अध्ययन करने गए. उन्होंने इसके बारे में लिखा कि वह समाज जो है वह उसका एटमाइजेशन हो चुका है. हर आदमी परमाणु की तरह है. परमाणुकरण हो चुका है. और उनकी लिबर्टी की जो बात है उसका जो अर्थ है वो सारे समाज के बंधनों से मुक्ति ये लिबर्टी का मतलब है. समाज को के कोई बंधन नहीं माने जाते. ना परिवार का, ना समाज का, ना वर्ग का, किसी चीज का नहीं. और वहां पर रिश्ते जो बनते हैं वह सिर्फ मतलब के बनते हैं. और जिसको विश्वास कहा जाता है वो इन इन इस इन मतलब के रिश्तों को साधते रहने का औजार मात्र है. विश्वास सिर्फ उसी को कहा जाता है. यह कहा उन्होंने वहां से के समाज के बारे में और किसी भी चीज का अर्थ सिर्फ कोई भी बात हो कोई भी चीज हो उसका अर्थ सिर्फ उसके उपभोग में देखा जाता है और कहीं नहीं. अब आप अगर इसको देखें कि तो यह जो चीज है यह तो बहुजन समाज में के रोजमर्रा के ज्ञान की चीज है कि यह चीजें समाज में जब आती है तो समाज खत्म हो जाता है. बहुजन समाज में हर वो चीज अपनाई जाती है जो इस अवस्था से समाज को दूर रखे. यह बात बताने का मतलब सिर्फ यह था कि उन्होंने वापस जाकर के लिखा कि पूंजीवादी व्यवस्था में यही होता है. यह पूंजीवाद का परिणाम है. हमारा आग्रह है कि यह सिर्फ पूंजीवाद का परिणाम नहीं है. यह पूंजीवाद और आधुनिक साइंस के गठबंधन का परिणाम है ना सिर्फ पूंजीवाद का और इसी चीज को हम इसी विचार को आगे ले जाना चाहते हैं. बहुजन विचार बहुजन समाज की दृष्टि से इसको आगे बढ़ाना चाहते हैं. कम्युनिस्ट पार्टी में ये चीज नहीं कही जा सकती थी क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी उसी ज्ञान को मानती है. चीन का जो आज का सबसे बड़ा नारा है वह कृत्रिम प्रज्ञा में सबसे आगे बढ़ने का दावा है जो आधुनिक साइंस की चरम सीमा है एक तरह से जिसमें हर चीज झुठलाई जा सकती है तो अवस्था आज की यह है कि जितनी राज्य प्रणालियां बनी वह सारी की सारी बहुजन समाज के ज्ञान को उठाकर वहां से ले जाकर उसके एक हिस्से को बढ़ाकर और राज्य व्यवस्था के साथ में मिलकर बहुजन समाज के शोषण के आधार पर बनी. आज आधुनिक राज्य व्यवस्था का इतिहास बहुत पुराना नहीं है. 400 साल इससे ज्यादा नहीं जब यह नेशन स्टेट की बात शुरू हुई फिर वो डेमोक्रेटिक वैरायटी का हो लिबरल या डिक्टेटोरियल वैरायटी का जो भी हो तानाशाही हो या उदारवादी हो उस स्टेट का जो ज्ञान आधार रहा वह आधुनिक साइंस रहा. आज कुछ परिवर्तन हो रहे हैं जो हमको अपनी स्वराज की बात कहने में मददगार साबित हो सकते हैं. यह इसलिए हो रहा है कि जैसे अमेरिका ने इस ज्ञान के बल पर और इस तरह के राज्य व्यवस्था के बल पर सारी दुनिया पर राज किया. उसकी ताकत लगभग खत्म होती जा रही है. ऐसा सब जगह माना जा रहा है. और एक जिसको मल्टीपोलर दुनिया कहा जा रहा है. मल्टीपोलर वर्ल्ड बहुध्रुवीय दुनिया जिसमें अमेरिका का एक केंद्र नहीं होगा सत्ता का बल्कि कई देशों में सत्ता के केंद्र होंगे. इस तरह का इस तरह की बात सामने आ चुकी है. जब यह होता है तब सत्ता का केंद्र बिखरता है और साथ में वह आपको अपनी बात कहने की कहने के मौके देता है. पिछले बार भी हम लोगों ने जब लोकविद्या की बात शुरू की तब मौका इंटरनेट के फैलाव का था. जिसने आधुनिक विज्ञान पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया था. संचार की दुनिया एक नई खड़ी कर दी थी. और ज्ञान क्या है और नहीं है इस पर नए नई चीजें सामने लाई थी. नए जिसको निकश कहा जाता है मराठी में क्या कहते हैं उसको हिंदी में निकश जिस पर यह तय होता है ज्ञान क्या है और नहीं है. इसके इसके नए सिद्धांत खड़े कर दिए थे. इसलिए साइंस पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया था और तमाम बहुजन समाज के पास में जो ज्ञान विधाएं हैं अलग-अलग उनका उनकी एक पहचान बन गई थी और उस पहचान के बल पर हम अपनी लोकविद्या की बात खड़ी कर पाए और यह कह पाए कि आज की दुनिया का की जो त्रासदी है प्रमुख त्रासदी है वह यह है कि लोकविद्या की पहचान को आज की दुनिया नकारती है. लोकविद्या को पहचानती नहीं है. लोकविद्या को मात्र एक शोषण का साधन मानती है. और हमने बराबरी की बात की, प्रतिष्ठा की बात की कि लोकविद्या की प्रतिष्ठा बराबरी की होनी चाहिए. तभी न्याय संगत समाज की बात हो सकती है. अन्यथा नहीं हो सकती. यह शर्त है. यह शर्त बनी हुई है. उसी पर हम आगे कदम बढ़ाने की बात कर रहे हैं. और वह भी परिस्थितियां जिस तरह की अब बन रही है जिसमें राज्य व्यवस्थाओं को समाज चलाना अधिकाधिक कठिन होता जाएगा. समाज चलाने का मतलब यह नहीं है समाज को खुशहाल बनाना. वो कभी था नहीं. राज्य व्यवस्थाओं के लिए समाज चलाने का मतलब उनके लिए है. समाज के आंदोलनों को एक सीमा के अंदर बनाए रखना. शोषण प्रक्रिया को एक हद तक व्यवस्थित ढंग से चलते रहने देना. चलते रखना. यही मतलब होता है राज्य व्यवस्थाओं के की सफलता क्या या असफलता अगर नहीं कर पाते हैं. असफलता यह हो रही है कि उसके अंदर से ही उसी तरह की व्यवस्थाएं कई जगह दुनिया में खड़ी हो गई. इसी को मल्टीपोलर वर्ल्ड कहा जा रहा है. लेकिन यह व्यवस्थाएं जब खड़ी होती हैं तब राजनीति में नए किस्म की बातें भी साथ में खड़ी होती हैं. उसके बिना मतलब जो विश्व बाजार जिसके बल पर पिछले 30 साल से अमेरिका ने अपना प्रभाव बढ़ाया और आज वही कारण हो रहा है कि उसका प्रभाव घट रहा है. विश्व बाजार उस तरह का रहेगा नहीं. कुछ बदलेगा. राज्य करने के तरीके बदलेंगे. हमारे यहां पर 2014 से यह चीज हो रही है लगातार. और इसकी नींव 1990 से ही पड़ गई थी. इन सारे विषयों पर बात आगे होनी है. मैं सिर्फ यह कह रहा हूं अभी कि स्वराज की बात प्रासंगिक इसलिए है कि नए राज्यों के माध्यम से राज्य व्यवस्थाओं के माध्यम से फिर वो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हो या सभ्यतागत राज्य हो बहुध्रुवीय व्यवस्था हो जो हो इन अलग-अलग नामों से जो कुछ भी घट रहा है उसमें बहुजन ज्ञान को क्या स्थान है? बहुजन ज्ञान सिर्फ जिस ज्ञान के आधार पर विश्व बाजार की व्यवस्थाओं में इंटरनेट के माध्यम से ज्ञान प्रबंधन के माध्यम से इन लोक के जिन धाराओं का प्रवाहों का शोषण किया गया सिर्फ उनकी बात नहीं हो रही. बात बहुजन समाज की राज्य व्यवस्थाओं की भी हो रही है. समाज चलाने की व्यवस्थाओं की भी हो रही है. जिस तरह से हमने चीजों के निर्माण प्रोडक्शन जिसको कहते हैं वितरण छोटी पूंजी के बल पर सृजन कार्य नई नई चीजें खड़ी करना ये इनसे संबंधित ज्ञान का सवाल है. उसको हमेशा ही दो 90 के बाद से बहुत बड़ी मात्रा में शोषण का साधन बनाया. पूंजी के बल पर, विश्व पूंजी के बल पर, बाजार के बल पर, राज्य व्यवस्थाओं के बल पर. हम अब बहुजन स्वराज की समाज संचालन की ज्ञान दर्शन की बात भी कर रहे हैं. उसका भी दावा ठोकना है. दावा सिर्फ आज तक हम जिसका ठोक रहे थे या समझ रहे थे कम से कम या समझा पाए थे लोगों को वहां तक सीमित नहीं है. क्योंकि बात सिर्फ अब इसकी नहीं रह गई है. शोषण की नहीं रह गई. यह बात यह रह गई है बन गई है कि जो बहुजन समाज की अंदरूनी ताकत है जो उसकी अपनी क्षमताएं हैं राज समाज संचालन की जो व्यवस्थाएं हैं चलाने की जो का जो ज्ञान है जिसको सब मिला जुलाकर स्वराज का नाम दिया जाता जा सकता है जो खुद से किया हुआ खुद पर राज है. हमने खुद अपना समाज चलाने की बात है. उस पर बात करने की और उसका दावा ठोकने की. अब अब यह अवसर है अगर आज के दुनिया में बहुजन स्वराज को अवस्थित करना है तो इन चीजों को देखते हुए चलना होगा. हम आगे जो बात करने वाले हैं इस पंचायत में वह इस संदर्भ में होने वाली है. बहुजन समाज की एक नई पहचान बनाने की बात है. एक नया नरेटिव खड़ा करने की बात है. इसको बांटने वाली जो पहचाने आज तक बनाता रहा बनाती रही आज की व्यवस्थाएं उसको दूर हटाने की बात जो हम पहले दो सत्रों में करेंगे जो बहुजन के सत्र हैं जो आज के सत्र हैं उसके बाद कल के सत्रों में स्वराज पर बात होगी. इसके अलग-अलग अर्थों पर बात होगी. बहुजन सभ्यता से इसके रिश्तों पर बात होगी. समाज संचालन से इसके रिश्तों पर बात होगी. लोकविद्या से इसके रिश्तों पर बात होगी. सामान्य समाज के साथ इसके रिश्तों से बात होगी. इन सारे चीजों पर बात होनी है. कल के सत्रों में और इसमें एक नई बात जो अलग से होनी है वह है कला और स्वराज के रिश्तों की. हम अपनी चर्चाओं में इस पर काफी दिनों से बात करते आए हैं. जी इस बात को सतत आगे ले जाती रही है कि कला की जो विधा है वह लोकविद्या की विधा से अलग नहीं है. सर्जन की सामान्य समाज को की शर्तों के अनुसार सजन की विधा यह कला की विधा है. लोकविद्या की विधा है. तो इस पर एक अलग सत्र होगा जिस पर बात आगे होगी. किताब भी आप देखेंगे तो लगभग या कहिए कि इन लेखों पर यह सत्र बनाए गए हैं. इनको गढ़ा गया है. उसी को देखते हुए जो बहुजन की क्षमताओं की बात करनी है वो दो किस्म की है. एक तो उसके निर्माण की क्षमताओं की बात जिसमें कला की बात प्रमुख है. और उस बहुजन समाज की चलती आती परंपराओं की बात प्रमुख है. उनकी स्मृतियों की बात प्रमुख है. क्योंकि स्मृति पीछे नहीं ले जाती. स्मृति पीछे से आज क्या चल रहा है उसके बारे में बात करती है जो परंपरा का वास्तविक अर्थ है तो बहुजन परंपरा की वह बात बढ़ानी है और उसको उसकी खोज करने की बात बढ़ानी है जो बहुजन के बल पर होनी है आज तक बहुजन की बातें जो हुई वो बाहर के लोगों ने मतलब सब अभिजनों ने विशिष्ट जनों ने बहुजनों के लिए की हुई बातें उनके विकास की लिए बताई हुई बातें हैं. उनके उनकी प्रगति के लिए उनको समझाई हुई बातें हैं. हमको वो बातें नहीं करनी है. हमको अपनी बातें करनी है. और वह बातें बहुजन में ही शुरू होनी है और वही चलनी है. इसको करने का जो तरीका है उसके बारे में बातचीत होगी. तो यह सारे सत्र जो इस इस पर गढ़े गए हैं मुझे सिर्फ इस बात को यहां पर खोल के रखना है और इसके आगे कुछ नहीं करना है. सत्रों में यह चीज होगी. आप सब उसमें सक्रियता से शामिल हो. बाकी बहुत से लोग अभी आने हैं. सत्संग के साथ में यह बातचीत चलेगी. कला की बात के साथ यह बातचीत चलेगी. लोकविद्या की बात के साथ यह बातचीत चलेगी. और स्वराज की बात को बढ़ाते हुए यह बातचीत चले. यही मैं आप यही सबसे इस इस सबकी अपेक्षा है इस पंचायत से और हम लोग सब मिलकर यह बात करें. इतना ही मैं कहना चाहूंगा. नमस्कार!
शब्दांकन [TRANSCRIPT]
विडियो लिंक: https://www.youtu.be/NW-lL-tZIX8
7 अक्टूबर 2025: दूसरा दिन, सत्र 1 (सु. 11.00 से दो. 1.00): बहुजन समाज
लक्ष्मण प्रसाद:
जी बहुत-बहुत धन्यवाद। अब अगले सत्र की शुरुआत संचालन … फज़लुर्रहमान अंसारी जी … आप आएं और संचालन संभाले।
फ़ज़लुर्रहमान अंसारी:
शुक्रिया लक्ष्मण जी। अब हम पहले सत्र की शुरुआत करने जा रहे हैं। आज इस सत्र की अध्यक्षता विजय जावंधियाय जी और लोकविद्या सत्य संघ के गायकार और विद्या आश्रम से काफी समय से जुड़ के कार्य कर रहे श्यामू भगत जी आज इस सत्र की सदारत और अध्यक्षता करेंगे। आज के इस सत्र के वक्ता जो भगत जी आज के इस सत्र के वक्ता के रूप में रामजनम जी जो किसान समाज के बीच में काफी लंबे समय से कार्य कर रहे हैं और जिनकी एक किसान नेता के तौर पर नहीं बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर पहचान है बहुजन समाज के तमाम आंदोलनों में चाहे वह किसान का आंदोलन हो, कारीगर का आंदोलन हो, किसी भी प्रकार का आंदोलन हो, तमाम आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी करते हैं। हम चाहेंगे कि आप स्टेज पर आ जाए। अगर हमारी आवाज उन तक पहुंच रही है तो दूसरे वक्ता के रूप में राम बिलाल जी जो पेशे से अभिवक्ता हैं और बहुजन समाज के बीच में कार्य करते हैं। हमारी आवाज अगर उन तक पहुंच रही है तो वह भी स्टेज पर आ जाए। तीसरे वक्ता के रूप में बहुजन आंदोलनों में शरी भागीदारी करने वाले अमान अख्तर साहब तक हमारी आवाज पहुंच रही है तो वो भी स्टेज पे आ जाए राजेंद्र मानधव जी जो विद्या आश्रम से जुड़ के लोकविद्या बहुजन समाज पे कार्य करते हैं उन तक अगर हमारी आवाज पहुंच रही तो वो भी स्टेज पे आ जाए। कृष्ण गांधी जी जो बहुजन समाज [संगीत] किसान समाज पे और स्वराज पे मजबूत समझ रखते हैं। हम उन तक भी अपनी आवाज पहुंचा कि वो भी जहां कहीं हो स्टेज पे आ जाए। पारमिता जी जो सामाजिक कार्यकर्ता हैं समाज के तमाम मुद्दों पे तमाम संघर्षों में बढ़-चढ़ के सहयोग करती हैं। हम उनसे भी चाहेंगे कि वक्ता के रूप में आप भी स्टेज पर आ जाए। इकबाल अंसारी जी जो बुनकर वाहनी नाम से संगठन चलाते हैं। जो बुनकरों के बीच में काफी लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं। उनके ज्ञान और उनके दान की बात करते हैं। हम उनसे भी चाहेंगे कि वो भी स्टेज पर आ जाए। शिव मूरत मास्टर साहब जो बहुजन समाज से हैं उन तक अगर हमारी आवाज पहुंच रही तो वो भी स्टेज पर आ जाए। आज का विषय जैसा कि विषय परिवेश में उन्होंने बताया बहुजन समाज और उनका ज्ञान बहुजन समाज आम लोगों की एक सामूहिक पहचान है। एक ऐसी पहचान जो सामूहिक संस्कृति ज्ञान की जिंदा परंपराओं का एक भंडार है। जनता एक बेशकल बेजान समुदाय है जिसको हुक्मरान भेड़ों की तरह हाकते हैं। हम जनता को जब बहुजन समाज कहते हैं तो बहुजन समाज का नाम देते ही उनमें विविध गुण शक्तियां नजर आने लगती हैं। बहुजन समाज [संगीत] वो तबका है जो समाज में जिनके पास खुद का ज्ञान है जो अपने ज्ञान के बल पर अपने हुनर के बल पर जाना और पहचाना जाता है। उसकी ज्ञान की परंपराएं और विरासत आज हम जो साझा संस्कृति साझा विरासत की बात करते हैं। बहुजन समाज का ज्ञान और विरासत एक ऐसी विरासत है जिसको हम गंगा जमुनी संस्कृति भाईचारा भी कह सकते हैं। बहुजन समाज की पहचान जाति से नहीं धर्म से नहीं भाषा से नहीं बहुजन समाज की पहचान उनके ज्ञान, उनकी विरासत, उनके दर्शन से है। बहुजन समाज के पास जो ज्ञान है जिसके बल पर उसने समाज के अंदर जो भाई का निजाम पैदा किया। जो सभ्यताएं हैं जो दर्शन है बहुजन समाज के हम उस पर खुल के विचार रखने के लिए हम लोगों के बीच में जिन वक्ताओं का हमने नाम लिया वो अपनी बातों को रखेंगे तो पहले शस्त्र में हम चाहेंगे कि हम लोगों के बीच में राम जन्म जी है जो बहुजन कार्यकर्ता भी हैं वो आए और अपनी बातों को रखें। भाई रामजनम जी …
रामजनम:
साथियों जैसा कि चित्रा जी अपने स्वागत भाषण में कहा कि एक लंबी कवायद के बाद हम लोग बहुजन स्वराज पंचायत तक पहुंचे। ये जब हम लोग इस तरह की बात कर रहे थे क्योंकि हम लोग लोकविद्या जन आंदोलन के लोग हैं और हम ये जो बार-बार सामान्य जन की बात कर रहे हैं उसको कैसे संबोधित किया जाए। तो हम लोगों के बीच जो बातचीत चल रही थी कि कुछ लोग इसको पिछड़ा समाज कहते हैं। कुछ लोग इसको शूद्र समाज कहते हैं। हम लोग कैसे संबोधित करें? क्योंकि संबोधन में भी बहुत कुछ छिपा हुआ है। संबोधन एक बड़ा नरेटिव होता है। तो हम लोग विचार करते हुए इस सारनाथ की धरती पे इसको बहुजन स्वराज कहना पसंद किया क्योंकि ये जो सामान्य जन है इसको सबसे पहले भगवान बुद्ध ने बहुजन समाज कहा था। जब हम पिछड़े समाज की बात कर रहे थे तो हम लोगों के दिमाग में बार-बार ये बात आ रही थी कि इस समाज को हम कैसे पिछड़ा समाज कह सकते हैं? यह समाज जो देश को चलाता है, देश बनाता है, यह कैसे पिछड़ा हो सकता है? और ये जो शूद्र शब्द है, ये तो ब्राह्मणवादी शब्द है। इसलिए हम लोगों ने तय किया कि इस सामान्य जन को हम बहुजन समाज से संबोधित करेंगे। साथियों जब हम दुनिया के समाजों को देखते हैं तो मेरे जैसे कार्यकर्ता को एक दो कैटेगरी समाजों की साफ-साफ दिखाई देती है। एक विशिष्ट समाज जिसको हम प्रोफेशनल समाज कह रहे हैं और दूसरा सामान्य जन जिसको आज हम बहुजन समाज कह कह रहे हैं। साथियों ये जो विशिष्ट समाज है ये जो प्रोफेशनल समाज है ये दुनिया को हाक रहा है दुनिया चला रहा है। ये दुनिया के सारे संसाधनों पे कब्जा जमा लिया है। ये दुनिया की राजनीति दुनिया की अर्थनीति दुनिया के जितने तरह के संसाधनों शैक्षणिक संसाधन है उसपे कुंडी मार के बैठ गया है। और यही समाज जिसको हम बहुजन समाज कह रहे हैं उसको हाकता हुआ नजर आ रहा है। हाक रहा है। किसके बल पे हाक रहा है? जिसकी बात अभी गिरीश शास्त्र बुद्ध जी ने कहा साइंस तकनीकी पूंजी तिकम और डंडे के बल पे इस बहुजन समाज को हाकंप रहा है। एक ऐसी व्यवस्था बन गई है। एक ऐसी आर्थिक राजनैतिक व्यवस्था बन गई है जिसमें ये प्रोफेशनल क्लास का क्लास इस बहुजन समाज को तिरस्कृत समाज बना दिया है। जो दुनिया चलाता है, जो दुनिया बनाता है, जो सब कुछ पैदा कर रहा है, उसको तिरस्कृत समाज बना दिया है। उसको एक रस्सी से बांध दिया है। एक रस्सी से एक ऐसी रस्सी से बांध दिया है, वो कुछ भी कर ले वो रस्सी नहीं खोल पा रहा है। दूसरी समाज, दूसरी तरफ एक बहुजन समाज है। विशाल समाज है। दुनिया का बहुजन समाज है। जो उत्पादन करता है, सृजन करता है, रचना करता है, जो सब कुछ बनाता है, वो ये जो प्रोफेशनल क्लास है उसके लिए भी बनाता है, अपने के लिए भी बनाता है, समाज के लिए बनाता है। वो हसिये पे वो किनारे है। ऐसी दुनिया बन गई है। ऐसे समय में एक नई दुनिया कैसी बनाई जाए? बहुत सारे लोगों को लगता है जितने तरह के परिवर्तन के कार्यकर्ताओं से मैं मिलता हूं बहुत सारे लोगों को लगता है कि एक नई दुनिया बनानी चाहिए। नई दुनिया बनाने का सपना बहुत तरह के लोग देखते हैं। लेकिन ये नई दुनिया बनेगी कैसे? ये नई दुनिया बनाने का की शक्ति का स्रोत कहां है? इसके सूत्र कहां है? इसके दर्शन कहां है? उसमें हम चुप हो जाते हैं। हम लोगों ने जो कवैद किया है जिसको चित्रा जी जिसका जिक्र किया कि हम लोग इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इस दुनिया के बहुजन समाज के पास वो ताकत है। उसी के पास वो सूत्र भी है। वो सूत्र उसकी परंपराओं में है। ये जिसको बहुजन समाज पिछड़ा समाज कहते हैं। उसकी राज परंपरा स्वराज उसकी राज परंपरा उसके तमाम तरह के राजा हुआ करते थे। लेकिन जब इतिहास की किताबें हम खोल के देखते हैं। यूनिवर्सिटी में जो पढ़ाया जाता है उसको देखते हैं तो हमको वो सब चीजें कहीं नहीं मिलती है। हमको आग कहीं नहीं मिलता। हमको सुहेलदेव कहीं नहीं मिलते। हमको वीर लोरी कहीं नहीं मिलता। इतिहास की किताबों में, इतिहास के पन्नों में इस साजिशन इसको दबा दिया गया है। इसको छिपा दिया गया है। और जिसके चलते ये जो बहुजन समाज की ताकत है, शक्ति है, वह असहाय हो जाती है। हमको उसी को उजागर करना। इस पंचायत का मकसद है बहुजन समाज की शक्ति को उजागर करना। और एक सूत्र खोजना जिस सूत्र की बात कई लोग करते हैं। एक सूत्र खोजना सूत्र कौन खोजेगा? हम आप खोजेंगे। यहां बैठे हुए लोग जो चिंतन मनन करते हैं। जो परिवर्तन के तमाम कामों में लगे हुए हैं। जो जन अभियान के तमाम कामों में लगे हुए हैं। जिनका सामाजिक सरोकार है। दिन रात सोचते हैं। लगातार सोचते हैं। कुछ करते भी रहते हैं। लेकिन उस सूत्र तक नहीं पहुंच रहे हैं। तो जो बहस है ये जो पंचायत है उसकी ये पहली कड़ी है। हमारे हिसाब से पहली कड़ी है। हो सकता है ये कहीं और शुरू हो चुका हो लेकिन हमारे निगाह में उसकी ये पहली कड़ी है। साथियों मैं कुछ बातें इतिहास का जितना मैं समझता हूं इतिहास को वो सब थोड़ी-थोड़ी बातें मैं आपके सामने रखना चाहता हूं। आजादी आंदोलन के दौरान ये जो स्वराज की बात लोग करते हैं ये कोई गांधी का दिया हुआ शब्द नहीं है। ये भारत भूभाग के मिट्टी का शब्द है। इसकी परंपराओं का शब्द है और इसको आप आज भी जांच सकते हैं। बहुजन समाज की पंचायतों में उसको आज भी देख सकते हैं। खुली पंचायतें होती है बहुजन समाज की। कम हो गई है लेकिन होती है। आप इसको देखना चाहते हैं। इस दौर में देखना चाहते हैं तो इस देश इस इस देश के किसान आंदोलन को आप देख सकते हैं। उसको आप देख सकते हैं। कि वहां ये चीजें आपको दिखाई देंगी। जब इस देश का किसान आंदोलन किसान संसद कर रहा था तो आप उसको गहराई में जाके देखेंगे। तो ये चीजें आपको जरूर दिखेंग। वो जो किसान संसद हुई थी उसमें महिला किसान संसद भी हुई थी। उसमें तमाम तरह के तमाम तरह के संसद हुए थे और राहुल गांधी जैसे विपक्ष के नेता उनकी पंचायतों उनकी संसद में जाके दर्शक दीर्घा में बैठते थे। तो यह बहुजन समाज समय-समय पर बताता रहा है कि हमारे पास समाज संचालन की ताकत है, शक्ति है, सूत्र है। लेकिन उसको दबा दिया गया है। ये ये जो बहुजन समाज के साथी हैं, जो बहुजन समाज पे बातचीत करते हैं, वो लंबी लंबी तकरीरें करते हैं। वह हजारों साल से शुरू करते हैं। मेरा मानना है कि आप हज़ारों साल में जाएंगे तो आप कुछ नहीं ढूंढ पाएंगे। आप 500 साल का इतिहास आप ढूंढ लीजिए। आपको बहुत सारी चीजें साफ-साफ दिखाई देंगी कि बहुजन समाज के पास इस देश के संसाधन भी थे। इस देश की राज परंपराएं थी। इस देश के राजा थे। खुद अंग्रेजों ने जब अंग्रेज यहां आए तो उनकी रिपोर्ट बताती है कि इस देश की किसान की आमदनी उस समय यूरोप के किसान से अधिक हुआ करती थी। ये चीजें हैं। ये बहुत ये बहुत पुरानी बात नहीं है। ये दो300 साल की बात है। इसको हम नहीं कहते हैं। हम चले जाते हैं हजारों साल में। इस देश की खेती ऐसी नहीं हुआ करती थी कि खेती में कोई साम्राज्य था, कोई सामंती था। ये जो खेती की व्यवस्था थी समाज में ये समाज करता था। ये जो खेती की अच्छी जमीन जमीनें हैं जिन पर फसलें अच्छी होती थी। उनकी व्यवस्था समाज की करता था। बारी-बारी से जो लोग खेती के काम में जो समाज खेती के काम में लगा रहता था वो बारी-बारी से इस देश में खेती किया करता था। ये भारत के खेती का इतिहास है। हम इसको भूल जाते हैं। इसको नजरअंदाज कर जाते हैं। इसलिए हम ना स्वराज पहचान पाते हैं, ना बहुजन समाज की ताकत पहचान पाते हैं। हमको इस तरह के इतिहासों को ढूंढना होगा, खोजना होगा। ये मिलेगा कहां? ये कॉलेजों में नहीं मिलेगा। इन कॉलेजों में नहीं मिलेगा। लेकिन आप जब इस देश की स्मृतियों के इतिहास में जाएंगे तो तमाम तरह की चीजें आपको मिलेंग। आप स्मृतियों का खनन करेंगे कि बहुत सारी चीजें आपको दिखाई। उसके सहारे हम आप मिलके कुछ नया सूत्र गढ़ सकते हैं। जिसकी जरूरत है। आज जरूरत उसकी है जैसा कि गिरीश जी कह रहे थे। जरूरत इसलिए है हम मनुष्य हैं। और हमारे सामने जो चुनौती है अब समाज को छोड़ दीजिए। अर्थनीति को छोड़ दीजिए। आप पर्यावरण को देख लीजिए। ना जीने लायक हवा है ना पीने लायक पानी है। और जिस साइंस ने इस तरह का भोजन इस तरह का अनाज हमारे सामने प्रस्तुत किया वही साइंस आज कह रहा है कि भोजन जहरीला है। उसमें रासायनिक की मात्रा बढ़ गई। वो मोटा अनाज ढूंढ रहा है। तो ऐसे समय में हमको तो कुछ ना कुछ करना पड़ेगा। कुछ नया ढूंढना पड़ेगा क्योंकि दुनिया की राजनीति जिस तरह से चल रही है पूरी राजनीति पैसे के खेल में बदल गई पैसा लगाओ पैसा बनाओ पैसा लगाओ पैसा बनाओ तो हम उस तरफ तो बहुत लेकिन समाज से उम्मीद है और और भी चीजें जो दिखाई देती हैं। जब राजनीति वाले असहाय होते हैं तो समाज के पास समाज का ही समाज को ही कहते हैं कि समाज के लोग खड़े होंगे तो फिर कुछ हो सकता है। ये 2024 का लोकसभा चुनाव आपके सामने मैं रखना चाहता हूं। मैं जिस पट्टी से आता हूं पूर्वी उत्तर प्रदेश में उस पट्टी में राजनीति करने वाला चुनाव लड़ने वाले तमाम तरह के विशेषज्ञों को भी नहीं पता था कि इस तरह का परिणाम आ जाएगा लेकिन जनता ने तय कर लिया था और उस तरह का परिणाम दिया चौंकाने वाला परिणाम तो आज भी जनता कुछ ढूंढ रही है तलाश रही है देख रही है उस सूत्र को गढ़ने की बात है। साथियों कई साथी हैं बात रखेंगे। मैं कुछ चीजें कहना चाहता हूं। जब इस दुनिया में कम्युनिस्ट आंदोलन सबाब पे था। तो एक कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो बना। एक नया नरेटिव गढ़ा गया और नारा दिया गया कि दुनिया के मजदूरों एक हो और जब आजादी आंदोलन चल रहा था तिलक ने नारा लगाया स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। गांधी ने कहा कि अंग्रेजों भारत छोड़ो। तो यही बहुजन समाज के अंदर एक हलचल पैदा हुई और उसकी शक्ति उजागर हो गई और जितनी दूरी तक परिवर्तन होना था उतना हुआ। आज मैं आपसे कहना चाहता हूं कि हम सब मिलके एक नया नरेटिव बहुजन समाज का बनाएं। एक नई बहुजन समाज का घोषणा पत्र तैयार करें। जैसा कि वक्तव्य हिंद स्वराज में रखा गया था। उस तरह का वक्तव्य बहुजन समाज का तैयार करें और नारा दें कि दुनिया के बहुजन एक हो। दुनिया के बहुजन एक हो। इसकी जरूरत है। मेरे जैसे कार्यकर्ता को लगता है इसकी जरूरत है। लेकिन हमारी क्षमता उस तरह की नहीं है। ना हमारी क्षमता गांधी की है। ना कम्युनिस्ट आंदोलन के जो नायक हैं उनकी है। लेकिन एक कार्यकर्ता के तौर पर इस तरह की चीजों को देखते हैं और पीछे जाते हैं। तो कुछ चीजें जो हमको दिखती हैं वो आपसे साझा कर रहे हैं। और इसी मकसद से मैं इस इसी नजरिए से मैं इस बहुजन स्वराज पंचायत का हिस्सेदार हूं। इसी नजरिए से मैं इसको देखता हूं। क्योंकि मैं अपने को बनारस का कार्यकर्ता कहता हूं। मैं अपने को कबीर की नगरी का कार्यकर्ता कहता हूं। परिवर्तन की नगरी का कार्यकर्ता कहता हूं। तो हमारी भी जिम्मेदारी है और यहां जो बैठे हुए लोग हैं मैं सबको जानता हूं। सबको पहचानता हूं। उनकी भी जिम्मेदारी है कि हम लोग मिलजुल के एक नया नरेटिव बनाने की कवायदत करें। उसके लिए कम से कम बहस तो चला सकते हैं। जैसे आज ये बहस हो रही है। इसी बहस को आगे बढ़ा सकते हैं या इसमें कुछ नया और कर सकते हैं। नया जोड़ सकते हैं। ये कोई पक्की बहस नहीं है। हम तो चाहते हैं हम आए। हम इस बहस को आगे बढ़ाएं। ये पंचायत क्योंकि अंतोगत ये तो करना ही पड़ेगा। अब इसको बिना किए हम सबका हम सबका छुटकारा नहीं। सत्ता बदल जाए, कुर्सी बदल जाए वो तो चलता रहेगा। वो भी जरूरी है कुछ देर के लिए। लेकिन वो क्षणिक है। वो तात्कालिक है। एक बड़े परिवर्तन की जरूरत है। एक बड़े लकीर खींचने की जरूरत है। तो अह मैं अपनी बात खत्म कर रहा हूं और हमको उम्मीद है यहां हमारे कई साथी बैठे हुए हैं। जिनके साथ मैं रोजमर्रा काम करता हूं। और मैं जब देखिए हमको कैसे लगता है जब अपने गांव जाते हैं अपने खेतों में जाते हैं और खेतों में धार रोपती है उन महिलाओं को कजरी गाते हुए हमारे इलाके में कजरी की गीत गा के महिलाएं धान रोकती तो मैं देखता हूं उनको तो वहां मुझे जो दिखता है कला ज्ञान और श्रम का अद्भुत संगम कला ज्ञान का अद्भुत संगम जिस पे बहुजन जिस पे स्वराज गढ़ा जा सकता है आज की आज के दौर का स्वराज जब हम अपने गांव के कुंभ को देखते चाक पर बैठे हुए कुम्हार को जब अपने इलाके के बोलकर को देखते हैं वहां भी हमको कला ज्ञान का दुसम दिखाई देता है। तो यदि हमारा बहुजन समाज इतना ताकतवर है तो हमको कुछ चीजें गढ़ने की जरूरत है। उसको आगे बढ़ाने की जरूरत है। बहुत-बहुत धन्यवाद।
फ़ज़लुर्रहमान अंसारी:
शुक्रिया रामजनम जी। आपने बहुजन समाज और स्वराज पर जो बातें कही क्योंकि वक्ता कई हैं और समय डेढ़ बजे तक का दिया गया है। तो हम वक्ता साथियों से यह निवेदन करते हैं कि 20 मिनट में ही अपनी बात को खत्म करें। अगले वक्ता के रूप में कृष्ण गांधी जी हम लोगों के बीच में मौजूद हैं। वो आए बहुजन और किसान पे अपनी बात रखें। कृष्ण गांधी जी।
कृष्ण गांधी: [विद्या आश्रम, झांसी]
साथियों बहुजन स्वराज पंचायत में हम लोग बैठे हैं। बहुजनों का स्वराज कैसे हो? इस पर हम लोग चिंतन मनन करने बैठे हैं। उस कार्य को कैसे आगे बढ़ाया जाए? इस पर सोचने के लिए हम लोग बैठे हैं। बहुजन क्या है? कौन है? इसके बारे में तो कुछ स्पष्टता हो चुकी है। हम लोग यही मानते हैं कि जो सामान्य व्यक्ति हैं सामान्य जीने जीवन जीने वाला समाज है। वही बहुम बहुजन समाज है। किसी प्रकार की विशिष्ट स्थान ग्रहण किए बगैर अपने जीवन यापन करते हैं। ऐसे लोगों के समूह उनको हम भोजन कह सकते हैं। सत्ता से अलग और पेशे से कोई खास पेशे से अलग विशिष्ट जनों से अलग अभिजात वर्ग में जो ना आता हो ना किसी प्रकार की विशिष्टता का दावा ना करता हो ऐसे समाज में समाज को ही हम बहुजन समाज मानते हैं। तो ऐसे बहुजन समाज के संबंध में कुछ सामान्य बातें मैं शुरू उससे शुरू करना चाहता हूं। पहली बात यह है कि बहुजन समाज में भी कई समाज हैं। छोटे समाज हैं। जैसे आदिवासी समाज हैं, महिलाएं हैं, कारीगर हैं, किसान हैं। और विभिन्न जातियां हैं। तो इन समूहों के आपसी रिश्ते क्या हो? इस पर भी हमें सोचने की जरूरत है। राम जन्म ने जैसे बताया कि आज बहुजनों के एक मंच पर आने की जरूरत है तो एक मंच पर हम कैसे आएंगे और एक दूसरे का हमारा व्यवहार कैसे होगा एक दूसरे के साथ इस पर भी हमें सोचने की जरूरत है। हम देख रहे हैं कि जो भी सत्ता है आज तक जो भी सत्ता हमने देखा है वह सत्ता हमेशा यही चाहती है कि बहुजन समाज आपस में लड़े उनके बीच में भाई पैदा हो बहुजन एक ना हो पाए और उनको किसी ना किसी बहाने उन पर दमन चलाना यही सत्ता का आज तक व्यवहार हमने देखा है। तो हम यह हमारे लिए बहुत आवश्यक है कि हम भोजनों को एक कैसे करेंगे? उसके हमारे तरीके क्या होंगे? इस पर हमें सोचने की जरूरत है। एक जो तरीका मेरे समझ में आया है वह हमारे देश में बहुत पहले से आजमाई हुई एक तरीका है। वह है अहिंसा का तरीका। तो ना केवल हम अहिंसा हम अपने शत्रुओं पर भी हम अहिंसा का प्रयोग करेंगे। लेकिन हम आपस में सबसे पहले आपस में भी अहिंसा का पालन करें। यह बहुत जरूरी है। ऐसा मुझे लगता है। जैसे अभी काफी सत्ता का यह हमेशा एक प्रयास रहा है कि कोई भी आंदोलन खड़ा होता है तो उसको हिंसक बनाना। अगर मान लीजिए वह अहिंसक है तो भी उसको उसमें ऐसे तत्वों को को घुसपैठ कराना जो उसको हिंसक रास्ते पर ले जाते हैं। यह सत्ता का हमेशा प्रयास रहा है। आंदोलनों को कुचलने का सत्ता का यही एक तरीका रहा है। अभी हाल में हम लोगों ने देखा लद्दाख में अहिंसक का आंदोलन चल रहा था। उसको किस तरीके से बदनाम किया गया और हिंसक कुछ वारदातें हुई उसी को उस पर सत्ता का फोकस है अभी उसको बदनाम करने के लिए कि आंदोलन हिंसक हो गया। हालांकि पिछले छ सालों से 2019 से लेकर के आज तक वह आंदोलन अहिंसक शांतिपूर्ण रहा। लेकिन उस बात को वो दबाना चाहते हैं और यह एक छाप उस आंदोलन पर डालना चाहते हैं कि वह हिंसक आंदोलन है इसलिए उसको कुचलना है। तो अहिंसा हमारा पर हमारा हमारी परंपरा है। हम हमारे बहुजनों को एक मंच पर लाने के लिए भी अहिंसा का ही मार्ग अपनाएंगे और हमारा आंदोलन भी अहिंसक रहेगा। हमारे शत्रु जो भी हो वह शत्रु एक व्यक्ति या समूह ना होकर के एक विचार होता है। यह भी हमें सोचने की जरूरत है। क्योंकि अक्सर हम भूल जाते हैं कि जैसे अक्सर हम लोग ब्राह्मणवाद की चर्चा करते हैं तो मुझे लगता है कि एक प्रवृत्ति हो जाती है कि ब्राह्मण हमारे शत्रु हैं। ऐसा मैं नहीं मानता। ब्राह्मणवाद हमारा शत्रु है। तो हमें शत्रु के निर्धारण में भी यह यह ध्यान रखना है कि हम किसी विशिष्ट वर्ग या यह है कि जब हम शोषित और शोषक ऐसे समाज में दो वर्ग देखते हैं तो जितना परेशान शोषित वर्ग हैं उससे कोई बहुत कम परेशान वह शोषक वर्ग भी नहीं है। क्योंकि उनको अपने शोषण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। बहुत प्रकार के झूठ और बहुत टेंशन मतलब बहुत ज्यादा उनको परेशान अपने असुरक्षा से वो ग्रसित रहते हैं। तो ऐसे में जब हमारा जो मुक्ति का जो हम लोगों का जो सपना है स्वराज का जो सपना है उस स्वराज के सपने साकार करने में जितना शोषित वर्ग शोषण से मुक्त होगा उतना ही शोषक वर्ग भी अपने असुरक्षा से अपने परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं। तो केवल मुक्ति शोषण से मुक्ति केवल एक घटक का नहीं है। जब समाज में शोषण समाप्त करने की हम बात करते हैं तो पूरे समाज की मुक्ति की बात हम करते हैं तो हम मुझे लगता है कि अपनी बातों में हमें इस प्रकार की जो बातों से बचना चाहिए कि हमारा दुश्मन जो है अंग्रेज है। हमारा दुश्मन ब्राह्मण है। हमारे दुश्मन क्षत्रिय हैं या हमारा दुश्मन कोई बांग्लादेशी है। इस प्रकार की जो बातें हम लोगों के एक प्रकार के जो प्रचार तंत्र है, सत्ता का प्रचार तंत्र है, वह पहचानों के आधार पर किसी की दाढ़ी है, किसी का कपड़ा है, उसके आधार पर नफरत करने की एक प्रवृत्ति समाज में बढ़ाने की कोशिश हो रही है। उस नफरत की जो धारा है उससे अपने को मुक्त रखना चाहिए। ऐसा मैं मानता हूं। तो इसलिए कोई समूह विशेष या कोई व्यक्ति विशेष को गाली देना उनका अपमान करना यह हमारा मार्ग नहीं है। ऐसा मैं मानता हूं। तो एक बात और भी है कि अक्सर और यह हम एक प्रकार से किसान आंदोलन के संदर्भ में आगे इस बात को बढ़ाना चाहता हूं। हमारे देश में किसान आंदोलन 50 वर्षों से एक अस्तित्व में रहा है और उस किसान आंदोलन किसानों को हम बहुजन का एक बहुत बड़ा खेमा हम मानते हैं और किसानों के की चर्चा उनकी समस्याओं की चर्चा उस किसान समाज की चर्चा के बगैर स्वराज की बात करना बहुजनों की बात करना अधूरा रहेगा। तो ऐसे किसान आंदोलन पिछले 50 वर्षों में अपने शोषण के खिलाफ आवाज उठाया है। लेकिन उस किसान समाज में जो आवाज जो अपने जो शोषण खत्म करने के जो तरीके हैं उस पर जो सोच रहा है एक सोच शुरू में समाजवादी विचारधारा का प्रभाव प्रभावित रहा है। एक खेमा तो वह समाजवादी विचारधारा में प्रभावित से प्रभावित जो खेमा है उस खेमे की मान्यता यह है कि सरकार किसानों का भला कर सकता है। यह इस प्रकार की कई बातें हमने सुनी है कि किसान आंदोलन में शुरू में लोग कहते थे कि जैसे बच्चा जो है रोता है तभी जो है मां उसको दूध पिलाती है। तो इसी तरीके से किसान अपने आवाज बुलंद करेगा तभी जो है सरकार उसका ध्यान उसकी तरफ देगी और सरकार को ही सब करना है। तो सरकार ही माई बाप वाली जो एक सोच समाजवाद में निहित है तो उस सोच के प्रभाव में शुरू में किसान आंदोलन में जो मांगे निकली थी उसमें ज्यादातर उसकी जिम्मेदारी किसानों ने सरकार पर डाली चाहे वह दाम तय करने की बात हो तो सही तरीके से किसानों को लागत खर्च का आकलन किया जाए और उस आधार पर एमएसपी निर्धारित की जाए तो और उसकी व्यवस्था की जाए सरकार द्वारा मंडियों की व्यवस्था हो जाए। किसानों से खरीद की व्यवस्था हो जाए तो एक समाजवादी विचारधारा का एक प्रभाव उस खेमे पर था। फिर कुछ दिन बाद किसान आंदोलन में एक और कहमा निकल आया जो मानता था कि सरकारें अब जो है उनका समाजवाद साम्यवाद सब का जमाना खत्म हो गया। अब सरकार जितना कम हो सरकार ना हो नहीं हो या कम से कम हो और मुख्य रूप से बाजार सरकार से मुक्त हो बाजार में जो भी विनिमय है वो उसमें सरकार कोई दखल ना करें। यह किसान आंदोलन की एक एक खेमे की तरफ से सामने आई। यानी कि यह खेमा मानता था कि सरकार किसानों का कोई भला नहीं कर सकता। सरकारों के सामने जाकर के गिटगिड़ाना और मांग करना कि तुम यह करो हमारे लिए हमारी मंडी की व्यवस्था करो। हमारी चीजें खरीदो। यह जो है बिल्कुल गलत सोच है। हमें तो बाजार में खुली स्पर्धा चाहिए। खुला व्यापार चाहिए। और जैसे खुले व्यापार और खुली स्पर्धा में किसान अपनी मेहनत से, अपनी क्षमता से, अपनी बुद्धि से अपना न्याय संगत मूल्य प्राप्त करेगा। यह दूसरे खेमे की सोच। तो इन सोचों के परिवर्तन के पीछे इतिहास में जो परिवर्तन हुए हैं वह भी एक कारक है। कम्युनिज़म दुनिया भर में लगभग 1990 तक खत्म हो गया था। कम्युनिज़म जैसे चीन में भी कम्युनिस्ट पार्टी केवल बची है। कम्युनिज्म के आधार पर कोई वहां पर अर्थव्यवस्था नहीं चल रही है। वह भी पूंजीवादी व्यवस्था है। पूंजीवाद पूरी दुनिया में अपने कब्जे में चंगुल में पूरी दुनिया को ले चुका है। आज तो साम्यवाद और समाजवाद के बात करना बहुत पुरानी बातें हो गई, निरर्थक हो गई। ऐसे लोग मानते हैं और उसके बाद जो है सरकार की जो है सामने जाकर बात करना सरकार को सर्वशक्तिमान मानना सर्व सरकार ही हमारा भला करेगा। यह सोच भी निकाल दिया गया तो बाजारवाद हुआ आ गया। खुला व्यापार। अब खुले व्यापार की बात भी अभी जो है लगभग 30 साल हो गया। विश्व व्यापार संगठन 1995 में उसकी स्थापना हुई। उसके पहले भी 15 20 सालों से विश्व व्यापार संगठन और मल्टीलटरल ट्रेडिंग सिस्टम यानी कि बहुपक्षीय व्यापार समझौता जिसमें कोई एक केंद्र नहीं रहेगा तो मैं समेट रहा हूं। तो मेरा कहना यह है कि किसान आंदोलन में इस प्रकार दो बातें आई। एक सरकार से मांगो और दूसरा सरकार को नकारो और बाजार की मांग करो। लेकिन 30 साल बाद आज यह स्थिति है कि कोई भी यह नहीं मानता है कि बाजार में न्याय मिलता है। तो आज सबसे हाल में दिल्ली में जो चुनाव जो किसान आंदोलन हुए हैं तो उसका नतीजा जो लास्ट उनकी मांग जो थी वो यह है कि कृषि पजों के लिए एमएसपी की लीगल गारंटी हो। यह बात निकली है। लेकिन इसमें सरकार की भूमिका क्या रहेगी? व्यापार ये मंडी में क्या भूमिका रहेगी? बाजार की क्या भूमिका रहेगी? यह स्पष्ट नहीं है। फिर भी मांग यही है। आज सबसे लास्ट में किसानों ने जो उठाया। तो मैं एक बात और यह कहना चाहता हूं कि तो हमारी जो समझ यह आ गई है कि ना सरकार ना बाजार किसानों के साथ न्याय कर रहा है। तो हम क्या करें? तो मैं समझता हूं कि किसान आंदोलन में स्वराज के की तरफ एक प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। दिल्ली में जो आंदोलन हुआ उसमें भी हमने देखा है कि आंदोलन का सांगठनिक जो पहलू है पक्ष है उसमें हमने देखा है कि सिख समाज जाट समाज खाप पंचायत इस प्रकार समाज किसान समाज के अलग-अलग रूप इकट्ठा होते हुए हमने देखा। उन लोगों ने आंदोलन को व्यवस्थित किया। उसको संचालित किया। एक साल चार महीने से भी ज्यादा समय तक आंदोलन सफलता पूर्वक चला। तो इन सब में मुझे लग रहा है कि स्वराज की एक प्रवृत्ति निकल पड़ी है और सरकार से और बाजार से इत किसानों का की ताकत अपनी क्षमता अपनी ऊर्जा स्वराज की दिशा में जाने की जाने लगी है। ऐसा मुझे लगता है और शायद आगे चलकर के किसानों के सामने स्वराज ही एक विकल्प बनेगा। से मोरे मुझे पूरी उम्मीद है। एक चीज और भी हम इसके इस संबंध में आपके सामने रखना चाहते हैं कि बहुजनों में विकास को लेकर के बहुत भ्रांतियां हैं। विकास क्या है? बहुत सारे हमारे मित्र हैं जो किसान आंदोलन में भी बहुत सक्रिय रहे हैं। वह कभी विदेश में जाकर देखते हैं कि वहां पर जो है फर्राटे से गाड़ियां चल रही है। सड़कें बहुत साफ सुथरे हैं और बहुत एफिशिएंसी हर जगह दिखाई दे रही है। यानी कि बहुत फटाफट बहुत कम समय में बहुत सारे काम होते हुए लोगों को दिख रहा है और सब चकाचक रेलवे स्टेशन हो, हवाई अड्डा हो, गाड़ियां हो, इमारतें हो सब चकाचक दिखाई दे रहा है। तो शायद लोगों के मन में लगता है कि विकास मतलब यही होता है। और इसी विकास के लिए वह लोग कह रहे हैं कि हां मोदी जी यही विकास हमारे देश में ला रहे हैं तो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। हम लोग भी वही विकास चाह रहे हैं। जैसे चीन चमक रहा है। जैसे अमेरिका चमक रहा है। जैसे सिंगापुर चमक रहा है। वैसे हमारे देश भी चमके। ऐसे काफी लोगों के मन में विकास के बारे में एक धारणा यह है। तो हमें इस पर काफी गहनता से विचार करने की जरूरत है कि विकास मतलब चमकते हुए शहर, चमकता हुआ हवाई अड्डा, चमकते हुए कार और यह सब चीजें हैं। मारते हैं या विकास का मायना कुछ और है। मैं समझता हूं कि जब हम लोग बहुजन समाज की बात कर स्वराज की बात करते हैं तो हमारे लिए विकास कोई लक्ष्य नहीं है। हमारे लिए विकास कोई मायने नहीं रखता है। चाहे किसी भी प्रकार का विकास हो। हमारे लिए जो मायने रखता है वह स्वराज है। यानी कि हमारी कार्य प्रणाली है। हमारे एक दूसरे के साथ मिलने जुलने का और निर्णय लेने के जो तरीका है और जिन मूल्यों पर हम अपने कार्य करते हैं। जैसे अक्सर हम आपस में यहां पर बैठे हुए लोग त्याग भाईचारा न्याय की बातें करते हैं तो मुझे लगता है कि विकास कोई चमकता हुआ इमारत नहीं हवाई अड्डा नहीं गाड़ी घोड़ा नहीं विकास वास्तव में यदि हम उसको एक अर्थ देना करना चाहते हैं तो उसको हमें यह समझना चाहिए कि वह न्याय त्याग भाईचारा जैसे मूल्यों के लोगों द्वारा अपनाया जाना उसी को विकास समय कहना चाहिए। तो जब हम न्याय त्याग भाईचारा यह मूल्य अपनाएंगे एक दूसरे के साथ हिंसा छोड़ेंगे नफरत छोड़ेंगे और मिलजुलकर निर्णय लेंगे और बहुमत से नहीं सर्वसमति से जब निर्णय लेंगे कोई भी मंच हो निर्णय सर्वसमति से होनी चाहिए। जब तक सर्वसम्मति नहीं होती है तब तक हम बहस करेंगे। एक दूसरे की शंकाएं दूर करेंगे। यदि हम इस रास्ते पर चलेंगे जो स्वराज का रास्ता है तो हमें इस बारे में भ्रमित होने की जरूरत नहीं है कि विकास क्या है। जो भी हम करेंगे वह सही रास्ते पर हम जाएंगे। हम सबके भलाई के लिए सबकी खुशहाली के लिए काम करेंगे। यही मैं आपके सामने रखना चाहता हूं। धन्यवाद।
फ़ज़लुर्रहमान अंसारी:
और काफी अच्छे तरीके से इन्होंने अपनी बात को रखा। हम लोगों के बीच में डूमरी में जो भूमि अधिग्रहण किया जा रहा है। भारतीय किसान यूनियन के लोग वहां पर आंदोलन कर रहे हैं। उस आंदोलन से हम लोगों के बीच चल के आए भारतीय किसान यूनियन के साथियों का मैं दिली खैर मकदम स्वागत और अभिनंदन करता हूं। साथ ही इंदौर से चल के आए काफी संख्या में कलाकार साथियों का भी हम विद्या आश्रम में दिली खैर मकदम स्वागत और अभिनंदन करते हैं। मैं खासतौर से वक्ता साथियों से निवेदन करना चाहूंगा कि एक टाइम बाउंड सेशन चल रहा है। हम बात जो समय दिया गया उस समय के अनुसार ही अपनी बात को रखें। बहुत ज्यादा विस्तार में जाएंगे तो बात बहुत लंबी हो जाएगी और लोगों को हम सुन नहीं पाएंगे। हमें भी कारीगर समाज में जो सबसे बड़ा समाज है बुनकर समाज मैं उस समाज से आता हूं। हमें भी बहुत सी बातें रखनी थी। लेकिन समय कम होने की वजह से मैं चाहूंगा कि कारीगर समाज यानी बुनकर समाज के बीच में काफी लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं। उनके बुनियादी समस्याओं को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। उनकी आर्थिक समस्याओं को लेकर संघर्ष कर रहे। उनकी ज्ञान की गैर बराबरी को लेकर संघर्ष करते रहे। साथी इकबाल अंसारी साहब हम लोगों के बीच में मौजूद हैं। मैं उनसे भी गुजारिश करना चाहूंगा कि बहुत ही कम समय में और महत्वपूर्ण मुद्दों पे ही अपनी बात को रखें। इकबाल अंसारी साहब …
इकबाल अंसारी:
आज के इस बहुजन स्वराज पंचायत के अगवाकार साथी आज इस प्रांगण में यह शांति का प्रतीक यह जो प्रांगण है गंगा जमुनी तहजीब का जो धरवर है वहां हमें इन तमाम बुद्धिजीवी अच्छे सोचों रखने वाले लोगों के बीच हमारे छोटे एक मामूली से कार्यकर्ता को अपनी बात रखने का हमें अवसर अगर प्राप्त हुआ है तो मैं इस सारनाथ की इस धरती पे अपने तमाम सम्मानित साथी अपने बुजुर्ग अपनी बहनें, अपनी माता और अपने साथियों का हार्दिक स्वागत एवं अभिनंदन उनको सलाम करते हैं। साथियों हम बहुत समय नहीं लेंगे क्योंकि बहुत अच्छे-अच्छे विचारक ने अपनी बात को रखी। और अभी बहुत अच्छे लोग भी आपके बीच आपसे रूबरू होंगे। मैं चंद लम्हों में अपनी बात खत्म करूं। उससे पहले मैं यह कहना चाहूंगा कि मैं किस समाज से आता हूं। मैं बुनकर समाज से आता हूं। स्वयं बुनकरी करता हूं। और बुनकरी करके अपना और अपने परिवार के लोगों का गुजर बसर करता हूं। और उसी में से समय निकाल के समाज में जो कमजोर तबका है, जो ना बराबरी है, जो नाइंसाफी है, उसी के सवाल पे जो भी अपना समय मिलता है इन तमाम लोगों के बीच मैं इत्तहाद और इत्तफाक की हमेशा बात रखने की प्रयास और कोशिश करता रहता हूं। मैं समझता हूं इस धरती पर इस पूर्वांचल की धरती पर बुनकर ही एक बड़ा हब है जो किसान इस देश का अन्नदाता है तो बुनकर सा कपड़ा बनाने का काम करता है और तन ढकने का काम करता है तो जिस तरीके से किसान भाइयों आप आंदोलन करते हो मेरा एक निवेदन है मेरी गुजारिश है कि आप इस दो अपने छोटे भाई किसान हमारा बड़ा भाई है। तो बनकर समाज के लोग भी आपके छोटे भाई हैं। तो मैं चाहता हूं कि जो भी आंदोलन जो भी संघर्ष हो हक और हुकुक के सवाल पे इत्तेहादो इत्तेफाक के सवाल पे मजहब और बिरादरी के सवाल पे नहीं साथियों मैं बात कर रहा हूं। हक और हुजूक के सवाल पे इंसाफ के सवाल पे इनकलाब के सवाल पे एकता और इत्तेहाद के सवाल पे इन बुनकर भाइयों को भी अपने साथ सारा बसाना कंधे से कंधे मिला के लेके चलने की बात करो।कि क्योंकि हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई जो मोब के किसानों ने लड़ी थी उसी तरीके से बुनकर समाज के लोग ने भी उसमें अपना अंग्रेज जो है ये चाहते थे कि किसी तरीके से ये स्वदेशी आंदोलन ये बंद हो जाए उनके बुनकरों के अंगूठे तराशने का काम कर हुनर रखते थे तो ये विश्वविद्यालयों में ये जो ये बड़े-बड़े लोग हैं ये कौन से लोग हैं ये तय करना चाहते हैं कि ये जो कारीगर समाज का लोग हैं सर्टिफिकेट ये कैसे बांटते हैं वो भी एक हुनर रखता है किसान समाज का साथी जो जमीन से मिट्टी जोत के जो हल चढ़ा करके उसमें बीज डाल के किसानी करता है वो भी उसका मास्टर है वो भी उसका कार्य वो भी उसका उस्ताद है वो भी जो जन्मदाता है उसी तरीके से बुनकर समाज डिजाइन बना के कपड़ा बना के तैयार करता है तो भी उसका जो बड़े-बड़े यूनिवर्सिटी से बड़े-बड़े आप जो है इससे आप बढ़ा करके प्रोफेसर बना करके अगर आप लो खड़ा करा दीजिएगा में खड़ा करा दीजिए और एक उसमें ताक भी अगर पहनवा दीजिए उस प्रोफेसर से तो मैं कहूं वो भी अपने हिसाब का वो भी आप एक मास्टर है और वो भी उसका जो है जन्मदाता वो भी डिग्री दाता है तो जितने कलाकार हैं जो हास्यकार हैं जो हारमोनिया बजाते हैं जो नाव बनाते हैं जो मल्ला है जो खेती किसानी करते हैं जो बिल्डिंग बनाते हैं जो तमाम तरीके के अपने अपने क्षेत्रों में काम करते हैं वो भी उसके उस्ताद वो मालिक हैं तो मैं चाहता हूं हुनर के ऐतबार से उनको जो कम से कम उनको जीविका का क्राइटेरिया मापदंड भी तय होना चाहिए आज तमाम हम लोगों को जात के नाम पर, मजहब के नाम पर, मंदिर के नाम पे, मस्जिद के नाम पे, चर्च के नाम पे, गुरुद्वारे के नाम पे, हिंदुओं के नाम पे, मुसलमानों के नाम पे अलग-अलग हमको दिशाओं में बांट दिया गया है।कि सत्ता में लोग इस तरीके से ऐसी व्यवस्था बना रहे हैं ताकि आप जातों के बीच उलझते रहो और हमारा जो है ये राजतंत्र हमको चलता रहे। आप नजर उठा के देख लो। तमाम सत्ता में बैठे। चाहे सत्ता पक्ष हो, चाहे विपक्ष हो, कोई बड़ा लीडर हो, उनकी अपनी व्यक्तिगत कोई परेशानी आती है तो आप देख लो चाहे सत्ता में बैठने वाले मंत्री जी हो, चाहे वो विपक्ष में बैठने वाले विधायक जी हो, सब एक दूसरे के सुखदख में साथी हो जाते हैं। लड़ते हैं कौन? लड़ते हैं आप। हमको नारा लगवा करके हमको संघर्षों के मैदान में झोंक दिया जाता है। लेकिन इनके जो बड़े कॉरपोरेट जगत के लोग हैं जो पूंजी घराने के लोग हैं उनके लड़के विदेशों में पढ़ते एसी के कमरे में पढ़ते हैं। एसी के प्लेन से सफर करते हैं और एसी में जाकर के नौकरी पा जाते हैं। हम आप कल भी धूल फंकते थे। आज भी धूल फंकेंगे और इसीलिए इन तमाम विचारधाराओं से हट कर केवल एकता की बात की जाए। स्वराज अभियान की बात है। हम उसमें अपनी बात को आगे जोड़ते हुए कहेंगे कि ना बराबरी नाइंसाफी की बात खत्म होनी चाहिए। एकता की बात होनी चाहिए। इत्तहाद इत्तफाक की बात होनी चाहिए। तो हम बुनकर समाज के लोग आप जानते हैं बुनकरी 72 थी। बुनकरों को जीने खाने का जो अधिकार सरकार ने दे रखा था जो यूपी की गवर्नमेंट से पास था। विधानसभा में पास था। विधान परिषद में पास था। यूपी की गवर्नर की दस्तखत हो गई थी। तो उसके बाद बुनकरों को फ्लैट रेट पे जो बिजली दी आ रही थी। जी ने खाने की व्यवस्था बनाई थी। उसको सरकारों ने उसको समाप्त कर दिया है। आप जानते हैं दुनिया में उतनी महंगाई नहीं बढ़ी होगी। 640% बुनकरों के साथ बिजली में रेट बढ़ा दिया गया। ये कहां का इंसाफ है मेरे साथियों। ए मेरे किसान भाइयों मैं कहता हूं आप जाके दिल्ली में 12 12 13 महीना आप जो जा के आंदोलन करते हैं बैठे रहते हैं तो मैं चाहता हूं बुनकर समाज के बीच भी बुनकर और किसान दोनों आपस में भाई है बुनकर समाज है छोटा भाई है तो किसान बड़ा भाई है बड़े भाई को मैं ये निवेदन के साथ ये कहना चाहूंगा कि आप किसानों भाई मेरे बुनकरों को भी कहिए आवाज लगाइए ऐ मेरे बुनकर भाई आप भी मेरे साथ हो आपकी अलग पीड़ा है मेरी अलग पीड़ा है आप जो है अगर किसानी मैं किसानी करता हूं तो आप दंड तन ढाकने का काम करते हैं। अगर मैं अन्न पैदा करता हूं तो आप तन ढाकने का काम करते हैं। तो बहुत कुछ ना कहते हुए फजुर रहमान भाई एक से डेढ़ मिनट में मैं अपनी बात खत्म कर दूंगा क्योंकि मैंने पहले ही कह दिया था कि मैं बहुत ज्यादा समय नहीं लूंगा फिर कभी मौका मिलेगा अवसर मिलेगा क्योंकि फजुर रहमान भाई ने अपील किया था मैं बहुत सारे साथियों को तो नहीं जानता मैं दो-तीन साथियों को जानता हूं यहां मैं एक एकता जी को जानता हूं और रवि भाई को जानता हूं और हमारे जो यादव जी आप जो भाषण दे रहे थे अभी आप यादव जो किसान के नेता है राजेंद्र जी राम जन्म जी उनको जानता जानता हूं और फजर रहमान भाई को और ये मेरे आंदोलनों के कविता जी रवि जी हुए फजर रहमान भाई हुए और ये साथी हुए मेरे जन आंदोलनों की एक पहचान है ये मेरे को रिश्ते और बिरादरी जाति की पहचान नहीं है ये मेरे खून के रिश्ते से भी ज्यादा अजीज है जो जन आंदोलन की कतार में हक और इंसाफ के सवाल पे एकता और इत्तहाद के सवाल पे अगर साथ चलने का अगर कदम से कदम मिलाकर अगर जज्बा रखते हैं तो मेरे खूनी रिश्ते से भी ज्यादा मेरे अजीज हैं मैं हिंदू और मुसलमान की बात नहीं करता साथियों बहुत कुछ ना कहते हुए इस बनारस की नगरी में इस मऊ की सरजमी से आप सभी लोगों को क्रांतिकारी अभिवादन के साथ मैं अपनी बात को खत्म कर रहा हूं। बहुत-बहुत शुक्रिया और कभी मौका मिलेगा। इत्तहाद इत्तफाक के सवाल पे जहां भी आवाज लगाओगे ये बंदा मौका निकाल के ये बुनकर मजदूर साथी आपके साथ कदम से कदम मिल चल मिला के चलने का प्रयास करेगा। बहुत-बहुत शुक्रिया खुदा हाफ़िज़।
फ़ज़लुर्रहमान अंसारी:
शुक्रिया इकबाल भाई। हम जिस बहुजन समाज की बात कर रहे हैं। इस बहुजन समाज में किसान, कारीगर, छोटी पूंजी का मैनेजमेंट करने वाला, आदिवासी, महिलाएं तमाम उस तबों को लेके हमने बहुजन समाज का जो नाम है उसका मकसद ही है कि एक समय में हम आ जाए। चाहे वो किसान हो, चाहे वो किसी भी प्रकार का कारीगर हो, बुनकर हो, मकान का निर्माण करने वाला हो, खिलौना बनाने वाला हो, मिट्टी का सुहाई बनाने वाला हो। जो लोकविद्या का ज्ञानी है जिसके पास खुद का ज्ञान है, उधार का ज्ञान नहीं है, उनको ले हम बहुजन समाज की जो बात कर रहे हैं, वही बहुजन समाज है। ये इस नजरिए से ना देखा जाए कि हम जातियों का समूह को बहुजन समाज कहते हैं बल्कि हम ज्ञान के नजरिए से देखें तो जो जनता है असल मायने में वही बहुजन समाज है। वो जनता जिनके पास समाज सृजन करने का ज्ञान है। जिनके पास विरासत है। जो अपने ज्ञान अपनी कला अपने हुनर से इस समाज के साथ-साथ इस देश का सजन किए हैं। आजादी से लेके अब तक और आजादी के पहले कि जो राज परंपराएं रही है वो न्याय संगत रही है और उन राज परंपराओं में बहुजन समाज के लोग ही रहे हैं। आज भी अगर स्थानीय स्तर पर जाए जहां बहुजन समाज के लोग रहते हैं। आज भी वहां पंचायत व्यवस्थाएं हैं। एक साजिशन इस पंचायत जो पंचायत का नाम है, जो बहुजन समाज ने जो नाम रखा है, जो व्यवस्थाएं रखी है, उसको समाप्त करने की एक साजिश है, उसको हम मीटिंग बैठक का नाम देते हैं। बैठक यानी एक व्यक्ति बोलेगा, और लोग नहीं बोल पाएंगे, जबकि पंचायत का मतलब है कि सामूहिक लोग अपनी बात रख सकते हैं। सामने वाला अगर गलत बोलेगा तो सामने बैठा हुआ व्यक्ति उसको टोक सकता है कि आपने जो बात कही है वो कहां से कही है उसका तर्क क्या है लेकिन आज की व्यवस्थाओं में एक ऐसी व्यवस्था बना दी गई है कि एक व्यक्ति आएगा जो बुनकर समाज से नहीं होगा जो कारीगर समाज से नहीं होगा जो किसान समाज से नहीं होगा और किसानों की खुशहाली का रास्ता बताएगा। किसान अगर खुशहाल नहीं है तो किसान खुशहाली का रास्ता बताएगा। जो गैर किसान है वो किसान की खुशहाली का रास्ता नहीं बता पाएगा। ये बात तो पहले हमें तय करनी होगी। जो कारीगर समाज है कारीगर समाज की खुशहाली का रास्ता कारीगर समाज के पास है। गैर कारीगर समाज जाके कारीगर की खुशहाली का रास्ता बताएं। यह किसी कीमत पर बहुजन समाज को मंजूर नहीं है। और कारीगर समाज अब और किसान समाज की जो नीतियां बनती हैं उन नीति बनाने वालों में कारीगर और किसान समाज का जब तक व्यक्ति नहीं होगा तब तक उनके पक्ष की नीति नहीं बन पाएगी। उनके विरोध की ही नीति बनेगी। ये बात भी हमें कहनी होगी। साथ ही हम चाहते हैं हम लोगों के बीच में सामाजिक मुद्दों पर काफी अच्छी समझ रखने वाली बहुजन मुद्दों पे तमाम आंदों में बढ़ चल के सहयोग करने वाली हम लोगों की बहन पारमिता जी यहां मौजूद है। हम उनसे गुजारिश करना चाहेंगे कि वह आए और उन मुद्दों पर जो आपकी समझ है, जो आपका अनुभव है, उसको हम लोगों के बीच में बयां करें ताकि हम लोगों को भी ऊर्जा मिले। भाई बहन जी हम लोगों के बीच में आए।
पारमिता:
धन्यवाद फ़ज़लुर्रहमान जी। फ़ज़लुर्रहमान जी मुख्यत एक नेता हैं। इसलिए जब वो संचालन भी करते हैं तो नेता के ही भाव में आ जाते हैं। इसलिए कई बार वो संचालक के तौर पर भी भाषण ही उनको याद आने लगता है। इसलिए उसको कोई बात नहीं हम लोग को उसको ध्यान नहीं देना चाहिए जो है। थोड़ा समय कम है इसलिए मैं कम समय में अपनी बात को रखूंगी। आज के यह बहुजन स्वराज पंचायत में मंच पर हमारे आदरणीय सामू भगत जी हैं और विजय जावंधिया जी का भी नाम मंच पर लिया गया था लेकिन तब शायद विजय जावंधिया जी नहीं थे। मैं आप दोनों को प्रणाम करते हुए और सामने जो इस बहुजन स्वराज पंचायत में जो आए हुए साथी हैं उन सबको प्रणाम करते हुए अपनी बात को करती हूं। वैसे तो बहुत सारे साथियों ने हमारे इकबाल भाई ने भी फैजुल रहमान जी ने भी सभी लोगों ने अपनी बात को कह दिया है कि हम जो आज बहुजन की बात कह रहे हैं बहुजन का मतलब क्या है? ऐतिहासिक तौर पर देखें तो बहुजन हम किसान के रूप में देखते हैं, कारीगर के रूप में देखते हैं, आदिवासी के रूप में देखते हैं और एक बहुत बड़ी ताकत है महिलाएं सब स्त्रियां उनके रूप में देखते हैं। लेकिन इसके साथ आधुनिक स्तर पे उस बहुजन का क्या संबंध है? तो जो आज हमारा इलेक्ट्रिक बिजली का काम करने वाला जो मिस्त्री है वो भी बहुजन है। वो भी उसी ज्ञान की परंपरा से आता है जिससे बहुजन आता है। जो हमारा प्लंबर है जो गाड़ी का मैकेनिक है, जो घर बनाने वाले हैं, जो टाइल्स बनाने वाले हैं, जो मोबाइल बनाने वाले हैं, जो लैपटॉप बनाने वाले हैं, वो सारे के सारे लोग उसी विधा से समाज में जो सीखने सिखाने की परंपरा है, उसी विश्वविद्यालय से, समाज के विश्वविद्यालय से निकले हुए लोग हैं। आज हम जो अगर ऐतिहासिक स्तर पर देखें तो जो बहुजन समाज था उसका शासक और बहुजन का जो संबंध था उसमें बहुत दूरी नहीं थी। चित्रा जी का एक लेख भी है जो पुस्तिका आप लोगों को मिल रही है। उसमें ये लिखा है कि जो शासक भी होता था वो बहुजन समुदाय का ही होता था। उसका किसानी से ऐसा नहीं था कि किसानी नहीं करने वाला था। हम बुध की धरती पर बैठे हैं। बुद्ध का जन्म जो है किसी ऐसे ही जंगल में और पेड़ के नीचे हुआ था। वहां छोटा सा जो संघ था, समुदाय था। उसके राजा थे, उनका बेटा था। तो ये सारे लोग जो धीरे-धीरे जब समाज बढ़ने लगा तो शासक और प्रजा के बीच की जो दूरी है वो खत्म होती गई। आजादी के 80 साल बाद भी हम बैठ के बहुजन स्वराज की बात कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं हम बहुजन स्वराज की बात? क्योंकि आजादी के बाद जैसा देश बनना चाहिए था, जैसा समाज बनना चाहिए था, उसका निर्माण उस तरह से नहीं हुआ। आज जो ज्ञान हमारे किसान आंदोलन के साथी ने अभी हमारे रामकृष्ण गांधी जी ने बोला कि किसानों के बारे में बारे में बहुत बड़ी बातें इन्होंने आपने रखी। किसान आंदोलन के बारे में किसान के मतलब पूरा का पूरा जो समुदाय है किसान का जैसा जीवन वो जीता था जो उसको मूल्य मिलना चाहिए था। आज के समाज में उसको मूल्य वो नहीं है। ये सारी की सारी अंग्रेजों ने भी आजादी के बाद भी जो बहुजन समाज था उसके ज्ञान को गवार सिद्ध किया गया। उसके ज्ञान को नकारा गया। आज कोई भी किसान का बेटा अपने खेती में अपना भविष्य नहीं तलाशता। किसी बुनकर का बेटा बुनकारी में अपना भविष्य नहीं देखता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि उस काम में पैसे की भी प्रतिष्ठा नहीं है, सम्मानजनक आय भी नहीं मिल रहा है और सम्मानजनक उनको प्रतिष्ठा भी नहीं मिल रही है। इस पैसे में आधुनिक पैसे में भी अभी हम लोग गाड़ी की सर्विसिंग कराने गए जो एसी की सर्विसिंग करने वाले हैं। उनसे बात हुई उन्होंने कहा हम चाहते हैं कि मेरा बेटा पढ़ के कहीं बढ़िया नौकरी कर ले। हमने कहा इसमें तो ज्यादा आमदनी है। कहे आमदनी तो है लेकिन इसमें प्रतिष्ठा नहीं है। तो ये ब्रह्मांड का काम करने वाले सभी चाहते हैं कि जो आधुनिक व्यवस्था है उसमें उनको जगह मिल जाए। ऐसा क्यों है कि आजादी के 80 साल बाद भी हम इस आधुनिक व्यवस्था में ही जगह ढूंढ रहे हैं और जो हमारा समाज है वो गांव से शहरों से पलायन कर रहा है। गांव के लोग शहर में नौकरी करने जा रहे हैं और हमारे बनारस के बुनकर भाई लोग सूरत में काम खोजने जा रहे हैं। तो ऐसी स्थिति में आज यहां बनारस के घाटों पे देव दीपावली के दिन तीन लाख दिया गुजरात से आएगा। तो ये जो सत्ता, पूंजीपति और आधुनिक शिक्षा ये तीनों ने का जो गठजोड़ है वो बहुजन समाज को विस्थापित कर रहा है। और बहुजन समाज का मतलब कोई जाति नहीं है। बहुजन समाज का मतलब कोई धर्म नहीं है। किसान किसी जाति में नहीं बटा है। किसी धर्म में नहीं बटा है। कारीगर किसी जाति में नहीं है। किसी धर्म में नहीं है। तो हम जब बहुजन समाज की बात करते हैं तो वो समाज जो अपने ज्ञान और हुनर के कारण जाना जाता है, अपनी विद्या के कारण पहचाना जाता है, हम उस समाज की बात करते हैं। आज 80 साल बाद भी तमाम तरह की राजनीति मतलब किसान आंदोलन भी हुए। उसमें बहुत सारे किसानों की उन्नति के लिए कमीशन भी बने। हमारे किसान नेता विजय जावंदिया जी हमारे बीच में हैं। अपने सेशन में आप अपनी बातें कहेंगे उससे हमको पता चलेगा कि किसानों के बारे में कितने संघर्ष हुए। कितने सारे सरकार ने नीतियां बनाई लेकिन उस सारी चीजों में किसान के श्रम का तो मूल्य है लेकिन किसान के विद्या का मूल्य नहीं है। जब एक प्रोफेसर पढ़ाता है विश्वविद्यालय में तो उसके श्रम का मूल्य नहीं मिलता है कि एक घंटा तुमने पढ़ाया तो तुम्हारे श्रम का मूल्य दे दे। जो वो पढ़ाता है वो उसके विद्या का मूल्य मिलता है। तो हम भी ये मांग करते हैं कि किसान हो, कारीगर हो उसके विद्या का मूल्य मिलना चाहिए। उसके स्वयं के मूल्य की मांग नहीं करते हैं। हमको भागीदारी चाहिए इस व्यवस्था में तो हमारे विद्या की भागीदारी होनी चाहिए। श्रम की भागीदारी तो है ही। श्रम की भागीदारी तो है ही। उसकी मांग तो मिल उठती ही है लेकिन जब तक विद्या की भागीदारी की मांग नहीं उठेगी तब तक चाहे बहुजन समाज के आंदोलन हो या जातिगत जो गोलाबंदियां हो रही हैं बहुजन समाज में तमाम प्रकार की जातियां भी हैं जो जैसे कुम्हार वाले हैं लोहार के लोग हैं भर समुदाय है राजभर तमाम प्रकार की जातीय गोलबंदी भी हो रही है लेकिन वो सारी जाती गोलबंदी बहुत दुख से कहना पड़ रहा है कि सत्ता के साथ कैसे बारगेनिंग हो जाए उसके लिए बन रही है। उसमें उस विद्या की बात नहीं होती है कि हमारे विद्या को कैसे सम्मान मिले उसकी बात नहीं होती है। हमारी विद्या की इस व्यवस्था में कैसे भागीदारी हो और कैसे हमारा बहुजन समाज का जो व्यक्ति है, जो बहुजन समाज का समुदाय है, कैसे उसको भी ज्ञानी होने का गम आए। गांधी ने जो लड़ाई लड़ी थी वो अंग्रेजों ने हमको हमारे आत्मविश्वास को कमजोर कर दिया था। गांधी ने हमारे आत्म स्वाभिमान को बढ़ा के स्वराज की लड़ाई लड़ी थी। आज अगर बहुजन का स्वराज होना है। बहुजन का संघर्ष होना है तो उसके आत्म सम्मान को जब तक हम ऊंचा नहीं उठाएंगे तब तक संघर्ष आगे नहीं बढ़ेगा। कोई बात नहीं। मेघ जी भी प्रसन्न हो गए हैं कि हम बहुजनों की बात कर रहे हैं ….